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मटर की खेती

सब्ज्यिों की रानी मटर की करें खेती

सब्ज्यिों की रानी मटर की करें खेती

जिन क्षेत्रों में श्रमिकों की उपलब्धता है वहां मटर की खेती किसानों के लिए वरदान बन सकती है। मटर कच्ची और दाने दोनों प्रयोग के लिए लगाई जाती है। कच्ची फली तोड़कर किसान कम समय में ही लागत को निकाल सकते हैं और बाकी की फसल को दाने के लिए पकाकर मुनाफा ले सकते हैं। इस तरह की खेती में अच्छी आय के लिए थोड़ी अगेती करना आवश्यक है। समूचे देश में जितनी मटर की खेती होती है उसकी आधी अकेले उत्तर प्रदेश में होती है। मध्य प्रदेश, उड़ीसा एवं बिहार में भी मटर की खेती हाती है। 

भूमि की तैयारी

मटर की खेती मटर की 

खेती विभिन्न प्रकार की उपजउू मृदा में हो सकती है लेकिन गंगा के मैदानी भागों की गहरी दोमट मिट्टी इसके लिए सबसे अच्छी रहती है। अच्छे अंकुरण के लिए मिट्टी में नमी भी रहे और खेत में ढ़ेल नहीं होने चाहिए।

मटर की प्रमुख प्रजातियाँ और उनकी खूबी

रचना किस्म 20-22 कुंतल उपज देती है। इसे संपूर्ण उत्तर प्रदेश में लगाया जा सकता है। यह सफेद फफुन्द अवरोधी है तथा 135 दिन में पक जाती है। इन्द्र किस्म 30—32 कुंतल उपज देती है। बुन्देलखण्ड में लगाने योग्य। मालवीय मटर-२ की उपज 20-25 कुंतल, पूर्वी एवं पश्चिमी मैदानी क्षेत्र में बोने योग्य। शिखा किस्म से भी 30 कुंतल तक उपज मिलती है। अपर्णा किस्म से 25-30 कुंतल व मध्य पूर्वी एवं पश्चिमी क्षेत्र हेतु उपयुक्त। के.पी.एम.आर. 522 से 25-30 कुंतल उपज मिलती है। यह पश्चिमी मैदानी क्षेत्र में बोने योग्य, सफेद फफूंद अवरोधी है। पूसा प्रभात एवं पूसा पन्ना किस्में 18-20 कुंतल उपज, पूर्वी मैदानी क्षेत्र में लगाने योग्य बेहद कम समय में पकने वाली हैं। अमन किस्म पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए है। इससे 30 कुंतल तक उत्पादन मिलता है। प्रकाश एवं हरियाल किस्में 32 कुंतल तक उपज देती हैं। यह क्रमश: बुन्देलखण्ड एवं पश्चिमी यूपी के लिए संस्तुत हैं। मटर की फसल, खरीफ ज्वार, बाजरा, मक्का, धान और कपास के बाद उगाई जाती है। मटर, गेंहूँ और जौ के साथ अंतः पसल के रूप में भी बोई जाती है। हरे चारे के रूप में जई और सरसों के साथ इसे बोया जाता है। बिहार एवं पश्चिम बंगाल में इसकी उतेरा विधि से बुआई की जाती है। 

बीजोपचार जरूरी

मटर की खेती 

 हर दलहनी फसल का बीजोपचार जरूरी है। पहले रासायनिक फफूंदनाशक से एवं बाद में राइजोबियम कल्चर से उपचारित करके बोने से रोग प्रभाव कम होता है और उपज ज्यादा मिलती है। मटर की बुआई मध्य अक्तूबर से नवम्बर तक की जाती है जो खरीफ की फसल की कटाई पर निर्भर करती है। समय पर बुआई के लिए 70-80 किग्रा. बीज/है. पर्याप्त होता है। पछेती बुआई में 90 किग्रा./है. बीज होना चाहिए। सीड ड्रिल से 30 सेंमी. की दूरी पर बुआई करनी चाहिए। बीज की गहराई 5-7 सेंमी. रखनी चाहिये। बौनी किस्म की मटर के लिए बीज दर 100 किलोग्राम/है. उपयुक्त है। उर्वरक – मटर में सामान्यतः 20 किग्रा, नाइट्रोजन एवं 60 किग्रा. फास्फोरस बुआई के समय देना पर्याप्त होता है। सिंचाई- मटर में पहली हल्की सिंचाई फूल आने के समय और दूसरी सिंचाई फलियाँ बनने के समय करनी चाहिए। खतपतवार नियंत्रण – खेत में चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार, जैसे-बथुआ, सेंजी, कृष्णनील, सतपती अधिक हों तो 4-5 लीटर स्टाम्प-30 (पैंडीमिथेलिन) 600-800 लीटर पानी में प्रति हेक्टेयर की दर से घोलकर बुआई के तुरंत बाद छिड़काव कर देना चाहिए।

रोग एवं कीट प्रबन्धन

रतुआ –

मटर की खेती

इस रोग के कारण जमीन के ऊपर के पौधे के सभी अंगों पर हल्के से चमकदार पीले (हल्दी के रंग के ) फफोले नजर आते हैं। अवरोधी प्रजाति मालवीय मटर 15 प्रयोग करें। आर्द्रजड़ गलन- इस रोग से प्रकोपित पौधों की निचली पत्तियाँ हल्के पीले रंग की हो जाती है। यह रोग मृदा जनित है। रोग की बीजाणु वर्षों तक मिट्टी में जमे रहते हैं। हर बार एक ही खेत में मटर न लगाएं। बीज को उपचारित करके बाएं। चांदनी रोग- इस रोग से पौधों पर एक से.मी. व्यास के बड़े-बड़े गोल बादामी और गड्ढे वाले दाग पीड जाते हैं। यह भी बीजोपचार न करने से फैलने वाला रोग है। बाद में भी फफूंदनाशक का छिड़काव करें। तुलासिता/रोमिल फफूंद- इसका प्रभाव पत्तियों पर होता है। बचाव हेतु 0.२% मौन्कोजेब अथवा जिनेब का छिड़काव 400-800 लीटर पानी में प्रति हेक्टेयर की दर से करनी चाहिए। 

मूल विगलन-

मटर की खेती 

 जमीन के पास के हिस्से से नये फूटे क्षेत्रों पर इस रोग का प्रकोप होता है। 3 ग्रा. थीरम+1 ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करें खेत का जल निकास ठीक रखें।

 

कीट

मटर की खेती 

तना मक्खी - ये पूरे देश में पाई जाती है। पत्तियों, डंठलों और कोमल तनों में गांठें बनाकर मक्खी उनमें अंडे देती है।

मांहू (एफिड) - कभी-कभी मांहू भी मटर की फसल को काफी नुकसान पहुंचाते हैं। इनके बच्चे और वयस्क दोनों ही पौधे का रस चूस लेते हैं। इससे फलियाँ सूख जाती हैं। हल्क पानी के छिडकाव या बेहद हल्की कीटनाशक ही इसको मारने के लिए काफी है। 

मटर का अधफंदा (सेमीलूपर) - यह मटर का साधारण कीट है। इसकी गिड़ारें पत्तियाँ खाती है। २% फोरेट से बीज उपचार करें या 1 किग्रा. फोरेट प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की मिट्टी में बुआई के समय मिला दें। आवश्यकता होने पर पहली निकलने की अवस्था में फसल पर 0.03% डामेथोएट 400 से 500 लीटर पानी में मिलाकर घोल कर प्रति हेक्टेयर छिड़कें। 

कटीला फली भेदक (एटीपेला) - यह फली भेदक उत्तर भारत में अधिक पाया जाता है।

मटर की खेती का उचित समय

मटर की खेती का उचित समय

मटर की खेती कई इलाकों में हरी सब्जी के लिए तो कई इलाकों में पकाने के लिए की जाती है। देश के विभिन्न राज्यों में मटर की खेती बखूबी की जाती है।

मिट्टी

मटर की खेती के लिए ब्लू दोमट मिट्टी सर्वाधिक श्रेष्ठ रहती है।

बुवाई का समय

मटर की खेती मटर की बुवाई के लिए अक्टूबर-नवंबर का माह उपयुक्त रहता है।

किस्में:-

अगेती किस्में

अगेता 6,आर्किल, पंत सब्जी मटर 3,आजाद p3 अगेती किस्मों की बिजाई के लिए 150 से 160 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखनी चाहिए एवं इनसे उत्पादन 50 से 60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है।

पछेती किस्म

आजाद p1,बोनविले,जवाहर मटर एक इत्यादि। मध्य एवं पछेती किस्मों के लिए बीज दर 100 से 120 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखनी चाहिए। उत्पादन 60 से 125 कुंतल प्रति हेक्टेयर तक मिलता है। इसके अलावा jm6, प्रकाश, केपी mr400,आईपीएफडी 99-13 किस्में भी कई राज्य में प्रचलित हैं और उत्पादन के लिहाज से काफी अच्छी है।

खाद एवं उर्वरक

मटर की खेती के बारे में जानकारी

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200 कुंटल साड़ी गोबर की खाद खेत तैयारी के समय मिट्टी में भली-भांति मिला देनी चाहिए।अच्छी फसल के लिए नाइट्रोजन 40 से 50 किलोग्राम ,फास्फोरस 50 किलोग्राम तथा पोटाश 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि मैं मिलानी चाहिए। पूरा फास्फोरस और पोटाश तथा आधा नत्रजन बुवाई के समय जमीन में आखिरी जोत में मिलाएं। शेष नाइट्रोजन बुवाई के 25 दिन बाद फसल में बुर्क़ाव करें।

बुवाई की विधि

मटर की खेती की बुवाई सब्जी वाली मटर को 20 से 25 सेंटीमीटर की दूरी पर पंक्तियों में बोना चाहिए।

सिंचाई

मटर कम पनी चाहने वाली फसल है लेकिन इसकी बुवाई पलेवा करके करनी चाहिए। बुवाई के समय पर्याप्त नमी खेत में होनी चाहिए। मटर की फसल में फूल की अवस्था पर एवं फली में दाना पढ़ने की अवस्था पर खेत में उचित नहीं होनी अत्यंत आवश्यक है लेकिन इस बात का ध्यान रहे कि पानी खेत में खड़ा ना रहे।

खरपतवार नियंत्रण

फसल की प्रारंभिक अवस्था में हल्की निराई गुड़ाई कर के खेत तक सपरिवार निकाल देना चाहिए अन्यथा की दशा में फसल का उत्पादन काफी हद तक प्रभावित होने की संभावना बनी रहती है। खरपतवार के पौधे मुख्य फसल के आहार का तेजी से अवशोषण कर लेते हैं।
मटर की खेती मैं पैसा ही पैसा

मटर की खेती मैं पैसा ही पैसा

मटर कच्ची बेची जाती है और पकने के बाद उसका दाना भी बिकता है। इस लिहाज से मटर की खेती में हर वक्त पैसे की आवक बनी रहती है। 5 से 4 महीने में पकने वाली फसलों के साथ यदि थोड़े से हिस्से में किसान मटर जैसी फसलें लगाना शुरू करें तो उनके पास हर वक्त पैसे की आवक बनी रहेगी। मटर की बुवाई मध्य अक्टूबर से मध्य नवंबर तक की जाती है।

बीज शोधन

किसी फसल का बीज लगाने से पहले उसका शोधन करना आवश्यक होता है ताकि बीज जनित बीमारियां फसल को प्रभावित ना करें। बीज शोधन सीरम मैनकोज़ेब या कार्बेंडाजिम में से किसी एक दवा की 2 ग्राम मात्रा एक किलोग्राम बीज के शोधन के लिए पर्याप्त रहती है। जैविक फफूंदी नाशक ट्राइकोडरमा 304 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से डालना चाहिए। उक्त दबाव में से किसी एक को लेकर बीज पर हल्के से पानी के छींटे लगाकर इन दवाओं का हादसे पर लेप जैसा कर दें। इसके बाद ही बीच की खेत में बुवाई करें।

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अनुमोदित सस्य क्रियाएं

80 से 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से रखा जाता है। लाइन से लाइन की दूरी 30 सेंटीमीटर बोनी प्रजातियों के लिए 15 से 20 सेंटीमीटर एवं पौधे से पौधे की दूरी 5 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। उर्वरक नाइट्रोजन, फास्फोरस, गंधक एवं जिंक की मात्रा कम से कम 30-40, किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से रखनी चाहिए। इसके अलावा सिंचाई प्रबंधन बोने के 45 एवं 75 दिन बाद करनी होती हैं। खेत में खरपतवार ना हो गए इसके लिए 1 लीटर पेंडीमैथलीन दवा को 800 से 1000 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के बाद और अंकुरण से पूर्व खेत में छिड़काव करना चाहिए। Matar ki kheti

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कीट नियंत्रण

पत्ती भेदक के लिए मेलाथियान 50 सीसी का 7:30 सौ ग्राम सकरी तक प्रति हेक्टेयर की दर से एवं पत्तियों पर आने वाले कीट को रोकने के लिए मेटासिस्टाक 20 ईसी की 1 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से 600 से 800 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।

उन्नत किस्में

Matar ki kheti पूसा प्रभात डीडीआर 23 किस्म बिहार उत्तर प्रदेश पश्चिम बंगाल और असम राज्य के लिए उत्तम है यह सिंचित एवं  बारानी अवस्थाओं के लिए है। इसकी उपज 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक आती है। यह बोनी और शीघ्र पकने वाली, फफूद को लेकर प्रतिरोधी किस्में है। पकाव अवधि 100 दिन है। पूसा पन्ना डीडीआर 27 कृष्ण उत्तर पश्चिमी क्षेत्र पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान एवं उत्तराखंड के लिए संस्तुत की गई है। यह सिंचित एवं 12वीं अवस्थाओं के लिए है। इसकी उपज 18 क्विंटल तक होती है। यह पकने में अधिकतम 90 दिन लेती है और बोनी किस्में है। चुर्याणीय फफूंद रोग को लेकर यह भी प्रतिरोधी है। रचना किस्म 20 से 25 क्विंटल तक उपस्थिति है। यह पकने में 130 से 35 दिन लेती है और संपूर्ण उत्तर प्रदेश में बोई जा सकती है। इंद्र कृष्ण की मटर 30 से 32 क्विंटल पैदावार देती है और 130 दिन में पक जाती है। बुंदेलखंड एवं मध्य उत्तर प्रदेश के लिए संस्तुत है। शिखा किस्में 25 से 30 कुंटल उपज देती है और 125 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। मालवीय मटर 1522 32 कुंटल उपज देती है और 120 दिन में पक जाती है। संपूर्ण उत्तर प्रदेश के लिए है। जेपी 885 मटर 20 से 25 कुंटल उपज देती है और 135 दिन में पक जाती है। यह किस्म बुंदेलखंड के लिए उपयुक्त है। पूसा प्रभात किस्म 15 से 18 कुंटल उपस्थिति है और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लिए संस्तुत है। मटर की जयपुर जाति 32 से 35 क्विंटल उपज देती है। 130 दिन में पक कर तैयार होती है और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए है। मटर की सपना किस्म 30 से 32 कुंटल उपस्थिति है 125 दिन में पकती है। संपूर्ण उत्तर प्रदेश के लिए है। प्रकाश किस्म की मटर 32 कुंटल उपज देती है और बुंदेलखंड के लिए है। अमन 2009 किस्म 28 से 30 कुंटल उपज देती है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए संस्तुति या किसान सभा 100 दिन में पकती है।
जानिए मटर की बुआई और देखभाल कैसे करें

जानिए मटर की बुआई और देखभाल कैसे करें

मटर रबी सीजन की प्रमुख फसल है। प्रमुख सब्जी व दलहन की फसल होने के कारण मटर का बहुत अधिक महत्व है। अगैती फसल की मटर बाजार में काफी महंगी बिकती है। किसान भाइयों को चाहिये कि अगैती फसल की खेती करके पहले मार्केट में मटर की फलियों को लाकर बेचें। इससे काफी अधिक लाभ होता है।

मटर की बुआई किस प्रकार की जाती है?

नम शीतोष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में मटर की खेती की जाती है। इसलिये हमारे देश में रबी के सीजन में सर्दियों के मौसम में मटर की खेती अधिकांश क्षेत्रों में की जाती है। इसकी खेती की बुआई के  समय 20 से 24 डिग्री का तापमान होना चाहिये तथा फसल की पैदावार के लिए 10 से 20 डिग्री का तापमान होना चाहिये। मटर की खेती के लिए मटियार दोमट तथा दोमट भूमि सबसे उत्तम होती है। सिंचित क्षेत्र में बलुई दोमट में भी मटर की खेती की जा सकती है। मटर की खेती के लिए खरीफ की फसल के बाद खेत की जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिये। उसके बाद दो तीन जुताई करके मिट्टी के ढेले फोड़ने के लिए पाटा लगाना चाहिये। मिट्टी एकदम भुरभुरी हो जानी चाहिये। खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिये। यदि खेत में नमी न हो तो पलेवा करके बुआई करनी चाहिये। मटर की अगैती फसल का समय 15 नवम्बर तक माना जाता है। इसके बाद भी पछैती मटर की खेती की जा सकती है। पहाड़ी क्षेत्र में अच्छी किस्म की  मटर की बुआई एक माह पहले ही शुरू हो जाती है। मध्यम किस्म की मटर की बुआई नवम्बर में ही होती है। इसी तरह पहाड़ी व मैदानी क्षेत्रों में बुआई नवम्बर तक होता है। बुआई से पहले मटर के बीज का उपचार किया जाना बहुत जरूरी होता है। बीजों का उपचार राइजोबियम से करना चाहिये। राजोबियम कल्चर  से बीज को उपचारित करना चाहिये। बीजों को उपचारित करने के लिए 50 ग्राम गुड़ और 2 ग्राम गोंद को एक लीटर पानी में घोल कर गर्म करके मिश्रण तैयार करें। उसे ठंडा होने दे जब ये घोल ठंडा हो जाये तो उसमें राइजोबियम कल्चर को मिलाकर अच्छी तरह मिला कर उससे उपचारित करें। इस तरह उपचारित करने से पहले बीजों का शोधन कर लेना चाहिये। शोधन करने के लिए दो किलो थायरम और एक किलो कार्बन्डाजिम मिलाकर बीजों का उपचार करें। बीजों को छाया में सुखायें। जब बीज का उपचार और शोधन हो जाये तब बुआई करें। बुआई के लिए 70 से 80 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है। यदि पछैती फसल की खेती करनी है तो उसमें आपको 100 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होगी।  देशी हल या सीड ड्रिल पद्धति से बुआई करनी चाहिये। किसान भाइयों को चाहिये कि  लाइन से लाइन की दूरी एक फुट से डेढ़ फुट की रखें। पौधे से पौधे की दूरी 5 से 7 सेंटीमीटर रखनी चाहिये। बीज की गहराई 4 से 7 सेंटीमीटर रखनी चाहिये।

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मटर की खेती की देखभाल ऐसे करें

बुआई के बाद सबसे पहले क्या करें, किसान भाइयों को चाहिये कि मटर की खेती में सबसे पहले खरपतवार का नियंत्रण करना चाहिये। बुआई के एक सप्ताह बाद ही खेत की निगरानी करनी चाहिये। यदि खरपतवार अधिक दिख रहा हो तो उसका निदान करने का प्रयास करना चाहिये। खेत की निराई गुड़ाई करने के साथ ही पौधों की दूरी को भी मेनटेन करना चाहिये। यदि आवश्यकता से अधिक बीज गिर गया है और पौधे पास पास उग आये हैं तो उनकी छंटाई करनी चाहिये। Matar

सिंचाई का प्रबंधन

मटर की फसल बहुत नाजुक होती है और सर्दी के मौसम में होती है। इसलिये इसकी सिंचाई का विशेष प्रबंधन करना चाहिये। शरदकालीन वर्षा वाले क्षेत्रों में मटर की खेती के लिए 2 से 3 सिंचाई जरूरी बताई गर्इं हैं। पहली सिंचाई एक से डेढ़ महीने के बाद की जानी चाहिये। दूसरी सिंचाई फलियों के आने के समय की जानी चाहिये। इस बीच यदि क्षेत्र में पाला पड़ता हो तो उससे पहले मटर के खेत में सिंचाई करनी होती है। अंतिम सिंचाई मटर के दाने पुष्ट होने के समय करनी चाहिये।

खरपतवार नियंत्रण कैसे करें

मटर की फसल की निराई व गुड़ाई करके खरपतवार का नियंत्रण किया जाता है। इससे मटर के पौधों की जड़ मजबूत होती है तथा पौधे में शाखाएं विकसित होती हैं जिससे पैदावार बढ़ जाती है। निराई गुड़ाई के अलावा मटर की खेती के खरपतवार का नियंत्रण रसायनों से भी किया जा सकता है। खरपतवार नियंत्रण के लिए ढाई से तीन लीटर पैण्डीमैथलीन प्रति हेक्टेयर बुआई के बाद तीन दिन में 500 लीटर पानी में मिलाकर उसका छिड़काव करना चाहिये। किसान भाई मेट्रीव्यूजीन और डब्ल्यूपी   मिलाकर बुआई के बाद एक पखवाड़े में  छिड़काव करें।

मटर की फसल में लगने वाले रोग और रोकथाम

मटर की फसल में कई रोग लगते हैं। किसान भाइयों को समय पर इन रोगों को उपचार करना चाहिये।
  1. चूर्णी फफूंद रोग से फसल को सबसे ज्यादा नुकसान होता है। नमी के समय यह रोग मटर की फसल में तेजी से लगता है। इस रोग के लगने से तने व पत्तियों पर सफेद चूर्ण इकट्ठा हो जाता है। इस रोग के दिखने के बाद किसान भाइयों को चाहिये कि डाइनोकप 48 प्रतिशत ईसी की 400 मिलीलीटर मात्रा को 1000 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें। एक बार छिड़काव से रोग न समाप्त हो तो दो तीन बार 15-15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिये।
  2. मृदुरोमिल फफूंद की बीमारी मटर के पौधों में पत्तियों की निचली सतह पर लगती है। इससे फसल को बहुत नुकसान होता है। इसके नियंत्रण के लिए 3 किलोग्राम सल्फर 80 प्रतिशत डब्ल्यूपी या डाइनोकेप 48 प्रतिशत ईसी की दो लीटर मात्रा को 1000 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करनी चाहिये।

कीट प्रकोप और रोकथाम

1.फली बेधक कीट के रोग लगने से मटर की फसल में कीड़े लगते हैं जो मटर की फलियों और दानों को खा जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए मेलाथियान दो मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिये। 2.चेपा यानी लीफ माइनर कीट लगे के कारण पत्तियों पर सफेद रंग की धारियां दिखाई लगने लगतीं हैं। चेपा  तने व पत्तियों का रस चूस कर नुकसान पहुंचाते हैं। इनकी रोकथाम के लिये मोनोक्रोटोफॉस 3 मिलीलीटर को प्रति लीटर पानी में मिलाकर घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये। 3.तना मक्खी का प्रकोप अगैती किस्म की मटर की फसल में अधिक होता है। यह कीट पौधों की बढ़वार को पूरी तरह से रोक देता है। इस रोग का नियंत्रण करने के लिए कार्बोफ्यूरान 3 जी नामक रसायन को 10 किलोग्राम की दर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिये। 4.पत्ती सुरंगक: इस कीट का प्रकोप दिसम्बर माह में देखा जाता है। यह कीट मार्च तक सक्रिय रहता है। यह कीट पत्तियों में सुरंग बना कर रस चूसता रहता है। इसके नियंत्रण के एि मेटासिस्टौक्स 26 ईसी की एक लीटर की मात्रा को 1000 लीटर पानी में मिलाकर घोल बनायें और उसका छिड़काव करें। जरूरत के अनुसार बार बार छिड़काव करते रहें। 5.फल बेधक कीट: यह कीट फलियों में छेद करके दानों को खा जाती हैं। इसका अधिक होने से पूरी फसल बरबाद हो सकती है। इस रोग की रोकथाम करने के लिस किसान भाइयों को मोनोक्रोटोफॉस 36 ईसी की 750 मिली लीटर मात्रा को 600 से 700 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें। एक बार में लाभ न मिले तो इसका छिड़काव  जल्दी-जल्दी करें।
तितली मटर (अपराजिता) के फूलों में छुपे सेहत के राज, ब्लू टी बनाने में मददगार, कमाई के अवसर अपार

तितली मटर (अपराजिता) के फूलों में छुपे सेहत के राज, ब्लू टी बनाने में मददगार, कमाई के अवसर अपार

रंगबिरंगी तितली किसके मन को नहीं भाती, लेकिन हम बात कर रहे हैं, प्रमुख दलहनी फसलों में से एक तितली मटर के बारे में। आमतौर पर इसे अपराजिता (butterfly pea, blue pea, Aprajita, Cordofan pea, Blue Tea Flowers or Asian pigeonwings) भी कहा जाता है। 

इंसान और पशुओं के लिए गुणकारी

बहुउद्देशीय दलहनी कुल के पौधोंं में से एक तितली मटर यानी अपराजिता की पहचान उसके औषधीय गुणों के कारण भी दुनिया भर में है। इंसान और पशुओं तक के लिए गुणकारी इस फसल की खेती को बढ़ावा देकर, किसान भाई अपनी कमाई को कई तरीके से बढ़ा सकते हैं। 

ब्लू टी की तैयारी

तितली मटर के फूल की चाय (Butterfly pea flower tea)

बात औषधीय गुणों की हो रही है तो आपको बता दें कि, चिकित्सीय तत्वों से भरपूर अपरजिता यानी तितली मटर के फूलों से अब ब्लू टी बनाने की दिशा में भी काम किया जा रहा है।

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ब्लू टी से ब्लड शुगर कंट्रोल

जी हां परीक्षणों के मुताबिक तितली मटर (अपराजिता) के फूलों से बनी चाय की चुस्की, मधुमेह यानी कि डायबिटीज पीड़ितों के लिए मददगार होगी। जांच परीक्षणों के मुताबिक इसके तत्व ब्लड शुगर लेवल को कम करते हैं।

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पशुओं का पोषक चारा

इंसान के स्वास्थ्य के लिए मददगार इसके औषधीय गुणों के अलावा तितली मटर (अपराजिता) का उपयोग पशु चारे में भी उपयोगी है। चारे के रूप में इसका उपयोग भूसा आदि अन्य पशु आहार की अपेक्षा ज्यादा पौष्टिक, स्वादिष्ट एवं पाचन शील माना जाता है। तितली मटर (अपराजिता) के पौधे का तना बहुत पतला साथ ही मुलायम होता है। इसकी पत्तियां चौड़ी और अधिक संख्या में होने से पशु आहार के लिए इसे उत्तम माना गया है।

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अनुभवों के मुताबिक अपेक्षाकृत रूप से दूसरी दलहनी फसलों की तुलना में इसकी कटाई या चराई के बाद अल्प अवधि में ही इसके पौधों में पुनर्विकास शुरू हो जाता है। 

एशिया और अफ्रीका में उत्पत्ति :

तितली मटर (अपराजिता) की खेती की उत्पत्ति का मूल स्थान मूलतः एशिया के उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र एवं अफ्रीका में माना गया है। इसकी खेती की बात करें तो मुख्य रूप से अमेरिका, अफीका, आस्ट्रेलिया, चीन और भारत में इसकी किसानी का प्रचलन है। 

मददगार जलवायु

  • इसकी खेती मुख्यतः प्रतिकूल जलवायु क्षेत्रों में प्रचलित है। मध्यम खारी मृदा इलाकों में इसका पर्याप्त पोषण होता है।
  • तितली मटर प्रतिकूल जलवायु जैसे–सुखा, गर्मी एवं सर्दी में भी विकसित हो सकती है।
  • ऐसी मिट्टी, जिनका पी–एच मान 4.7 से 8.5 के मध्य रहता है में यह भली तरह विकसित होने में कारगर है।
  • मध्यम खारी मिट्टी के लिए भी यह मित्रवत है।
  • हालांकि जलमग्न स्थिति के प्रति यह बहुत संवेदनशील है। इसकी वृद्धि के लिए 32 डिग्री सेल्सियस तापमान सेहतकारी माना जाता है।

तितली मटर के बीज की अहमियत :

कहावत तो सुनी होगी आपने, बोए बीज बबूल के तो फल कहां से होए। ठीक इसी तरह तितली मटर (अपराजिता) की उन्नत फसल के लिए भी बीज अति महत्वपूर्ण है। कृषक वर्ग को इसका बीज चुनते समय अधिक उत्पादन एवं रोग प्रतिरोध क्षमता का विशेष तौर पर ध्यान रखना चाहिए।

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तितली मटर की कुछ उन्नत किस्में :

तितली मटर की उन्नत किस्मों की बात करें तो काजरी–466, 752, 1433, जबकि आईजीएफआरआई की 23–1, 12–1, 40 –1 के साथ ही जेजीसीटी–2013–3 (बुंदेलक्लाइटोरिया -1), आईएलसीटी–249 एवं आईएलसीटी-278 इत्यादि किस्में उन्नत प्रजाति में शामिल हैं। 

तितली मटर की बुवाई के मानक :

अनुमानित तौर पर शुद्ध फसल के लिए बीज दर 20 से 25 किलोग्राम मानी गई है। मिश्रित फसल के लिए 10 से 15 किलोग्राम, जबकि 4 से 5 किलोग्राम बीज स्थायी चरागाह के लिए एवं 8 से 10 किलोग्राम बीज प्रति हैक्टेयर अल्पावधि चरण चरागाह के लिए आदर्श पैमाना माना गया है। तय मान से बुवाई 20–25 × 08 – 10 सेमी की दूरी एवं ढ़ाई से तीन सेमी की गहराई पर करनी चाहिए। कृषि वैज्ञानिक उपचारित बीजों की भी सलाह देते हैं। अधिक पैदावार के लिए गर्मी में सिंचाई का प्रबंधन अनिवार्य है। 

तितली मटर की कटाई का उचित प्रबंधन :

मटर के पके फल खेत में न गिर जाएं इसलिए तितली मटर की कटाई समय रहते कर लेना चाहिए। हालांकि इस बात का ध्यान भी रखना अनिवार्य है कि मटर की फसल परिपक्व हो चुकी हो। जड़ बेहतर रूप से जम जाए इसलिए पहले साल इससे केवल एक कटाई लेने की सलाह जानकार देते हैं।

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तितली मटर के उत्पादन का पैमाना :

उपज बरानी की दशा में स्थितियां अनुकूल रहने पर लगभग 1 से 3 टन सूखा चारा और 100 से 150 किलो बीज प्रति हेक्टेयर मिल सकता है। इतनी बड़ी ही सिंचित जमीन पर सूखा चारा 8 से 10 टन, जबकि बीज पांच सौ से छह सौ किलो तक उपज सकता है। 

पोषक तत्वों से भरपूर खुराक :

तितली मटर में प्रोटीन की मात्रा 19-23 फीसदी तक मानी गई है। क्रूड फ़ाइबर 29-38, एनडीफ 42-54 फीसदी तो फ़ाइबर 21-29 प्रतिशत पाया जाता है। पाचन शक्ति इसकी 60-75 फीसदी तक होती है।

मटर की खेती से संबंधित अहम पहलुओं की विस्तृत जानकारी

मटर की खेती से संबंधित अहम पहलुओं की विस्तृत जानकारी

मटर की खेती सामान्य तौर पर सर्दी में होने वाली फसल है। मटर की खेती से एक अच्छा मुनाफा तो मिलता ही है। साथ ही, यह खेत की उर्वराशक्ति को भी बढ़ाता है। इसमें उपस्थित राइजोबियम जीवाणु भूमि को उपजाऊ बनाने में मदद करता है। अगर मटर की अगेती किस्मों की खेती की जाए तो ज्यादा उत्पादन के साथ भूरपूर मुनाफा भी प्राप्त किया जा सकता है। इसकी कच्ची फलियों का उपयोग सब्जी के रुप में उपयोग किया जाता है. यह स्वास्थ्य के लिए भी काफी फायदेमंद होती है. पकने के बाद इसकी सुखी फलियों से दाल बनाई जाती है.

मटर की खेती

मटर की खेती सब्जी फसल के लिए की जाती है। यह कम समयांतराल में ज्यादा पैदावार देने वाली फसल है, जिसे व्यापारिक दलहनी फसल भी कहा जाता है। मटर में राइजोबियम जीवाणु विघमान होता है, जो भूमि को उपजाऊ बनाने में मददगार होता है। इस वजह से
मटर की खेती भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए भी की जाती है। मटर के दानों को सुखाकर दीर्घकाल तक ताजा हरे के रूप में उपयोग किया जा सकता है। मटर में विभिन्न प्रकार के पोषक तत्व जैसे कि विटामिन और आयरन आदि की पर्याप्त मात्रा मौजूद होती है। इसलिए मटर का सेवन करना मानव शरीर के लिए काफी फायदेमंद होता है। मटर को मुख्यतः सब्जी बनाकर खाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। यह एक द्विबीजपत्री पौधा होता है, जिसकी लंबाई लगभग एक मीटर तक होती है। इसके पौधों पर दाने फलियों में निकलते हैं। भारत में मटर की खेती कच्चे के रूप में फलियों को बेचने तथा दानो को पकाकर बेचने के लिए की जाती है, ताकि किसान भाई ज्यादा मुनाफा उठा सकें। अगर आप भी मटर की खेती से अच्छी आमदनी करना चाहते है, तो इस लेख में हम आपको मटर की खेती कैसे करें और इसकी उन्नत प्रजातियों के बारे में बताऐंगे।

मटर उत्पादन के लिए उपयुक्त मृदा, जलवायु एवं तापमान

मटर की खेती किसी भी प्रकार की उपजाऊ मृदा में की जा सकती है। परंतु, गहरी दोमट मृदा में मटर की खेती कर ज्यादा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त क्षारीय गुण वाली भूमि को मटर की खेती के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता है। इसकी खेती में भूमि का P.H. मान 6 से 7.5 बीच होना चाहिए। यह भी पढ़ें: मटर की खेती का उचित समय समशीतोष्ण और उष्णकटिबंधीय जलवायु मटर की खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है। भारत में इसकी खेती रबी के मौसम में की जाती है। क्योंकि ठंडी जलवायु में इसके पौधे बेहतर ढ़ंग से वृद्धि करते हैं तथा सर्दियों में पड़ने वाले पाले को भी इसका पौधा सहजता से सह लेता है। मटर के पौधों को ज्यादा वर्षा की जरूरत नहीं पड़ती और ज्यादा गर्म जलवायु भी पौधों के लिए अनुकूल नहीं होती है। सामान्य तापमान में मटर के पौधे बेहतर ढ़ंग से अंकुरित होते हैं, किन्तु पौधों पर फलियों को बनने के लिए कम तापमान की जरूरत होती है। मटर का पौधा न्यूनतम 5 डिग्री और अधिकतम 25 डिग्री तापमान को सहन कर सकता है।

मटर की उन्नत प्रजातियां

आर्केल

आर्केल किस्म की मटर को तैयार होने में 55 से 60 दिन का वक्त लग जाता है। इसका पौधा अधिकतम डेढ़ फीट तक उगता है, जिसके बीज झुर्रीदार होते हैं। मटर की यह प्रजाति हरी फलियों और उत्पादन के लिए उगाई जाती है। इसकी एक फली में 6 से 8 दाने मिल जाते हैं।

लिंकन

लिंकन किस्म की मटर के पौधे कम लम्बाई वाले होते हैं, जो बीज रोपाई के 80 से 90 दिन उपरांत पैदावार देना शुरू कर देते हैं। मटर की इस किस्म में पौधों पर लगने वाली फलियाँ हरी और सिरे की ऊपरी सतह से मुड़ी हुई होती है। साथ ही, इसकी एक फली से 8 से 10 दाने प्राप्त हो जाते हैं। जो स्वाद में बेहद ही अधिक मीठे होते हैं। यह किस्म पहाड़ी क्षेत्रों में उगाने के लिए तैयार की गयी है। यह भी पढ़ें: सब्ज्यिों की रानी मटर की करें खेती

बोनविले

बोनविले मटर की यह किस्म बीज रोपाई के लगभग 60 से 70 दिन उपरांत पैदावार देना शुरू कर देती है। इसमें निकलने वाला पौधा आकार में सामान्य होता है, जिसमें हल्के हरे रंग की फलियों में गहरे हरे रंग के बीज निकलते हैं। यह बीज स्वाद में मीठे होते हैं। बोनविले प्रजाति के पौधे एक हेक्टेयर के खेत में तकरीबन 100 से 120 क्विंटल की उपज दे देते है, जिसके पके हुए दानो का उत्पादन लगभग 12 से 15 क्विंटल होता है।

मालवीय मटर – 2

मटर की यह प्रजाति पूर्वी मैदानों में ज्यादा पैदावार देने के लिए तैयार की गयी है। इस प्रजाति को तैयार होने में 120 से 130 दिन का वक्त लग जाता है। इसके पौधे सफेद फफूंद और रतुआ रोग रहित होते हैं, जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 25 से 30 क्विंटल के आसपास होता है।

पंजाब 89

पंजाब 89 प्रजाति में फलियां जोड़े के रूप में लगती हैं। मटर की यह किस्म 80 से 90 दिन बाद प्रथम तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है, जिसमें निकलने वाली फलियां गहरे रंग की होती हैं तथा इन फलियों में 55 फीसद दानों की मात्रा पाई जाती है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 60 क्विंटल का उत्पादन दे देती है।

पूसा प्रभात

मटर की यह एक उन्नत क़िस्म है, जो कम समय में उत्पादन देने के लिए तैयार की गई है | इस क़िस्म को विशेषकर भारत के उत्तर और पूर्वी राज्यों में उगाया जाता है। यह क़िस्म बीज रोपाई के 100 से 110 दिन पश्चात् कटाई के लिए तैयार हो जाती है, जो प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 40 से 50 क्विंटल की पैदावार दे देती है। यह भी पढ़ें: तितली मटर (अपराजिता) के फूलों में छुपे सेहत के राज, ब्लू टी बनाने में मददगार, कमाई के अवसर अपार

पंत 157

यह एक संकर किस्म है, जिसे तैयार होने में 125 से 130 दिन का वक्त लग जाता है। मटर की इस प्रजाति में पौधों पर चूर्णी फफूंदी और फली छेदक रोग नहीं लगता है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 70 क्विंटल तक की पैदावार दे देती है।

वी एल 7

यह एक अगेती किस्म है, जिसके पौधे कम ठंड में सहजता से विकास करते हैं। इस किस्म के पौधे 100 से 120 दिन के समयांतराल में कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं। इसके पौधों में निकलने वाली फलियां हल्के हरे और दानों का रंग भी हल्का हरा ही पाया जाता है। इसके साथ पौधों पर चूर्णिल आसिता का असर देखने को नहीं मिलता है। इस किस्म के पौधे प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 70 से 80 क्विंटल की उपज दे देते हैं।

मटर उत्पादन के लिए खेत की तैयारी किस प्रकार करें

मटर उत्पादन करने के लिए भुरभुरी मृदा को उपयुक्त माना जाता है। इस वजह से खेत की मिट्टी को भुरभुरा करने के लिए खेत की सबसे पहले गहरी जुताई कर दी जाती है। दरअसल, ऐसा करने से खेत में उपस्थित पुरानी फसल के अवशेष पूर्णतय नष्ट हो जाते हैं। खेत की जुताई के उपरांत उसे कुछ वक्त के लिए ऐसे ही खुला छोड़ दिया जाता है, इससे खेत की मृदा में सही ढ़ंग से धूप लग जाती है। पहली जुताई के उपरांत खेत में 12 से 15 गाड़ी पुरानी गोबर की खाद को प्रति हेक्टेयर के मुताबिक देना पड़ता है।

मटर के पौधों की सिंचाई कब और कितनी करें

मटर के बीजों को नमी युक्त भूमि की आवश्यकता होती है, इसके लिए बीज रोपाई के शीघ्र उपरांत उसके पौधे की रोपाई कर दी जाती है। इसके बीज नम भूमि में बेहतर ढ़ंग से अंकुरित होते हैं। मटर के पौधों की पहली सिंचाई के पश्चात दूसरी सिंचाई को 15 से 20 दिन के समयांतराल में करना होता है। तो वहीं उसके उपरांत की सिंचाई 20 दिन के उपरांत की जाती है।

मटर के पौधों पर खरपतवार नियंत्रण किस प्रकार करें

मटर के पौधों पर खरपतवार नियंत्रण के लिए रासायनिक विधि का उपयोग किया जाता है। इसके लिए बीज रोपाई के उपरांत लिन्यूरान की समुचित मात्रा का छिड़काव खेत में करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त अगर आप प्राकृतिक विधि का उपयोग करना चाहते हैं, तो उसके लिए आपको बीज रोपाई के लगभग 25 दिन बाद पौधों की गुड़ाई कर खरपतवार निकालनी होती है। इसके पौधों को सिर्फ दो से तीन गुड़ाई की ही आवश्यकता होती है। साथ ही, हर एक गुड़ाई 15 दिन के समयांतराल में करनी होती है।
कृषि वैज्ञानिकों ने मटर की 5 उन्नत किस्मों को विकसित किया है

कृषि वैज्ञानिकों ने मटर की 5 उन्नत किस्मों को विकसित किया है

कृषक भाइयों रबी सीजन आने वाला है। इस बार रबी सीजन में आप मटर की उन्नत किस्म से काफी अच्छी पैदावार प्राप्त कर सकते हैं। बेहतरीन किस्मों के लिए भारत के कृषि वैज्ञानिक नवीन-नवीन किस्मों को तैयार करते रहते हैं। इसी कड़ी में वाराणसी के काशी नंदिनी भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान द्वारा मटर की कुछ बेहतरीन किस्मों को विकसित किया है। भारत में ऐसी बहुत तरह की फसलें हैं, जो किसानों को कम खर्चे व कम वक्त में अच्छा उत्पादन देती हैं। इन समस्त फसलों को किसान भाई अपने खेत में अपनाकर महज कुछ ही माह में मोटा मुनाफा कमा सकते हैं।

सब्जियों की खेती से भी किसान अच्छा-खासा मुनाफा कमा सकते हैं

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि ऐसी फसलों में
सब्जियों की फसल भी शम्मिलित होती है, जो किसान को हजारों-लाखों का फायदा प्राप्त करवा सकती है। यदि देखा जाए तो किसान अपने खेत में खरीफ एवं रबी सीजन के मध्य में अकेले मटर की बुवाई से ही 50 से 60 दिनों में काफी मोटी पैदावार अर्जित कर सकते हैं। जैसा कि हम सब जानते हैं, कि देश-विदेश के बाजार में मटर की हमेशा मांग बनी ही रहती है। बतादें, कि मटर की इतनी ज्यादा मांग को देखते हुए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान के कृषि वैज्ञानिकों ने मटर की बहुत सारी शानदार किस्मों को इजात किया है। जो कि किसान को काफी शानदार उत्पादन के साथ-साथ बाजार में भी बेहतरीन मुनाफा दिलाएगी।

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काशी अगेती

इस किस्म की मटर का औसत वजन 9-10 ग्राम होता है। बतादें, कि इसके बीज सेवन में बेहद ही ज्यादा मीठे होते हैं। इसकी फलियों की कटाई बुवाई के 55-60 दिन उपरांत किसान कर सकते है। फिर किसानों को इससे औसत पैदावार 45-40 प्रति एकड़ तक आसानी से मिलता है।

काशी मुक्ति

मटर की यह शानदार व उन्नत किस्म चूर्ण आसिता रोग रोधी है। यह मटर बेहद ही ज्यादा मीठी होती है। यह किस्म अन्य समस्त किस्मों की तुलना में देर से पककर किसानों को काफी अच्छा-खासा उत्पादन देती है। यदि देखा जाए तो काशी मुक्ति किस्म की प्रत्येक फलियों में 8-9 दाने होते हैं। इससे कृषक भाइयों को 50 कुंतल तक बेहतरीन पैदावार मिलती है।

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अर्केल मटर

यह एक विदेशी प्रजाति है, जिसकी प्रत्येक फलियों से किसानों को 40-50 कुंतल प्रति एकड़ पैदावार प्राप्त होती है। इसकी प्रत्येक फली में बीजों की तादात 6-8 तक पाई जाती है।

काशी नन्दनी

मटर की इस किस्म को वाराणसी के काशी नंदिनी भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान ने इजात किया है। इस मटर के पौधे आपको 45-50 सेमी तक लंबे नजर आऐंगे। साथ ही, इसमें पहले फलियों की उपज बुवाई के करीब 60-65 दिनों के उपरांत आपको फल मिलने लगेगा। बतादें, कि इसकी किस्म की हरी फलियों की औसत पैदावार 30-32 क्विंटल प्रति एकड़ तक अर्जित होती है। साथ ही, बीज उत्पादन से 5-6 क्विंटल प्रति एकड़ तक अर्जित होती है। ऐसे में यदि देखा जाए तो मटर की यह किस्म जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल, पंजाब, उत्तर प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश के कृषकों के लिए बेहद शानदार है।

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काशी उदय

इस किस्म के पौधे संपूर्ण तरीके से हरे रंग के होते हैं। साथ ही, इसमें छोटी-छोटी गांठें और प्रति पौधे में 8-10 फलियां मौजूद होती हैं, जिसकी प्रत्येक फली में बीजों की तादात 8 से 9 होती है। इस किस्म से प्रति एकड़ कृषक 35-40 क्विंटल हरी फलियां अर्जित कर सकते हैं। किसान इस किस्म से एक नहीं बल्कि दो से तीन बार तक सुगमता से तुड़ाई कर सकते हैं।
परती खेत में करें इन सब्जियों की बुवाई, होगी अच्छी कमाई

परती खेत में करें इन सब्जियों की बुवाई, होगी अच्छी कमाई

सितंबर महीने में अपने परती पड़े खेत में करें इन फली या सब्जियों की बुवाई

भारत के खेतों में मानसून की शुरुआत में बोयी गयी
खरीफ की फसलों को अक्टूबर महीने की शुरुआत में काटना शुरू कर दिया जाता है, पर यदि किसी कारणवश आपने खरीफ की फसल की बुवाई नहीं की है और जुलाई या अगस्त महीने के बीत जाने के बाद सितंबर में किसी फसल के उत्पादन के बारे में सोच रहे हैं, तो आप कुछ फसलों का उत्पादन कर सकते है, जिन्हें मुख्यतः सब्जी के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

मानसून में बदलाव :

सितंबर महीने के पहले या दूसरे सप्ताह में भारत के लगभग सभी हिस्सों से मानसून लौटना शुरू हो जाता है और इसके बाद मौसम ज्यादा गर्म भी नहीं रहता और ना ही ज्यादा ठंडा रहता है। इस मौसम में किसी भी सीमित पानी की आवश्यकता वाली फसल की पौध को वृद्धि करने के लिए एक बहुत ही अच्छी जलवायु मिल सकती है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में इस्तेमाल आने वाली सब्जियों की बुवाई मुख्यतः अगस्त महीने के अंतिम सप्ताह या फिर सितंबर में की जाती है।

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भारत मौसम विज्ञान विभाग ने दी किसानों को सलाह, कैसे करें मानसून में फसलों और जानवरों की देखभाल कृषि क्षेत्र से जुड़ी इसी संस्थान की एडवाइजरी के अनुसार, भारत के किसान नीचे बताइए गई किसी भी फली या सब्जियों का उत्पादन कर सितंबर महीने में भी अपने परती पड़े खेत से अच्छा उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं।
  • मटर की खेती

 15 से 30 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में के साथ 400 मिलीमीटर की बारिश में तैयार होने वाली यह सब्जी दोमट और बलुई दोमट मिट्टी में उगाई जा सकती है। मानसून के समय अच्छी तरीके से पानी मिली हुई मिट्टी इसके उत्पादन को काफी बढ़ा सकती है।अपने खेत में दो से तीन बार जुताई करने के बाद इसके बीज को जमीन से 2 से 3 सेंटीमीटर के अंदर दबाकर उगाया जा सकता है।
मटर की खेती से संबंधित पूरी जानकारी और बीमारियों से इलाज के लिए यह भी देखें : जानिए मटर की बुआई और देखभाल कैसे करें
  • पालक की खेती

वर्तमान में उत्तरी भारत में पालक के लगभग सभी किसानों के द्वारा हाइब्रिड यानी कि संकर बीज का इस्तेमाल किया जाता है। 40 से 50 दिन में पूरी तरह से तैयार होने वाली यह सब्जी किसी भी प्रकार की मिट्टी में आसानी से उगाई जा सकती है, हालांकि इसकी पौध लगाने से पहले किसानों को मिट्टी की अम्लता की जांच जरूर कर लेनी चाहिए। 25 से 30 डिग्री सेंटीग्रेड के मध्य बेहतर उत्पादन देने वाली यह सब्जी पतझड़ के मौसम में सर्वाधिक वृद्धि दिखाती है। प्रति हेक्टेयर 20 से 30 किलोग्राम बीज की मात्रा से बुवाई करने के तुरंत बाद खेत की सिंचाई कर देनी चाहिए।
पालक की खेती के दौरान खेत को तैयार करने की विधि और इस फसल में लगने वाले रोगों से निदान के बारे में 
संपूर्ण जानकारी प्राप्त करने के लिए, यह भी देखें : पालक की खेती की सम्पूर्ण जानकारी
  • पत्ता गोभी की खेती

सितंबर महीने के पहले या दूसरे सप्ताह में शुरुआत में नर्सरी में पौध उगाकर 20 से 40 दिन में खेत में पौध को स्थानांतरित कर उगायी जा सकने वाली यह सब्जी भारत में लगभग पूरे वर्ष भर इस्तेमाल की जाती है। 70 से 80 दिनों के अंतर्गत पूरी तरह तैयार होने वाली यह फसल पोषक तत्वों से भरपूर और अच्छी सिंचाई वाली मिट्टी में आसानी से बेहतरीन उत्पादकता प्रदान कर सकती है। ड्रिप सिंचाई विधि तथा उर्वरकों के सीमित इस्तेमाल से इस फसल की पत्तियों की ग्रोथ काफी तेजी से बढ़ती है। 15 से 30 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में तैयार होने वाली यह सब्जी की फसल जब तक कुछ पत्तियां नहीं निकालती है, अच्छी मात्रा में पानी की मांग करती है। इस फसल की खास बात यह है कि इससे बहुत ही कम जगह में अधिक पैदावार की जा सकती है, क्योंकि इसके दो पौध के मध्य की दूरी 30 सेंटीमीटर तक रखनी होती है, इस वजह से एक हेक्टेयर में लगभग 20 हज़ार से 40 हज़ार छोटी पौध लगायी जा सकती है।
पत्ता गोभी फसल तैयार करने की संपूर्ण जानकारी और इसकी वृद्धि के दौरान होने वाले रोगों के निदान के लिए,
यह भी देखें : पत्ता गोभी की खेती की सम्पूर्ण जानकारी
  • बैंगन की खेती

भारत में अलग-अलग नामों से उगाई जाने वाली यह सब्जी 15 से 25 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान के मध्य अच्छी उत्पादकता प्रदान करती है। हालांकि, इस सब्जी की खेती खरीफ और रबी की फसल के अलावा पतझड़ के समय भी की जाती है। अलग-अलग प्रकार की मिट्टी में उगने वाली यह फसल अम्लीय मिट्टी में सर्वाधिक प्रभावी साबित होती है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अनुसार एक हेक्टेयर क्षेत्र में बैंगन उत्पादित करने के लिए लगभग 400 से 500 ग्राम बीज की आवश्यकता होती है। इन बीजों को पहले नर्सरी में तैयार किया जाता है और उसके बाद खेत को अच्छी तरीके से तैयार कर 50 सेंटीमीटर की दूरी रखते हुए बुवाई जाती है। ऑर्गेनिक खाद और रासायनिक उर्वरकों के सीमित इस्तेमाल से 8 से 10 दिन के अंतराल पर बेहतरीन सिंचाई की मदद से भारत के किसान काफी मुनाफा कमा रहे है।
बैंगन की फसल से जुड़ी हुई अलग-अलग किस्म और वैज्ञानिकों के द्वारा जारी की गई नई विधियों की संपूर्ण जानकारी के लिए, 
यह भी देखें : बैंगन की खेती साल भर दे पैसा
  • मूली की खेती

सितंबर से लेकर अक्टूबर के महीनों में उगाई जाने वाली यह सब्जी बहुत ही जल्दी तैयार हो सकती है। पिछले कुछ समय में बाजार में बढ़ती मांग की वजह से इस फसल का उत्पादन करने वाले किसान काफी अच्छा मुनाफा कमा रहे है। 15 से 20 सेंटीग्रेड के तापमान में अच्छी उत्पादकता देने वाली यह फसल उपजाऊ बलुई दोमट मिट्टी में अपनी अलग-अलग किस्मों के अनुसार प्रभावी साबित होती है। किसान भाई कृषि विज्ञान केंद्र से अपनी खेत की मिट्टी की अम्लीयत या क्षारीयता की जांच अवश्य कराएं, क्योंकि इस फसल के उत्पादन के लिए खेत की पीएच लगभग 6.5 से 7.5 के मध्य होनी चाहिए। सितंबर के महीने में अच्छी तरीके से खेत को तैयार करने के बाद गोबर की खाद का इस्तेमाल कर, 10 से 12 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीज की बुवाई करते हुए उचित सिंचाई प्रबंधन के साथ अच्छी पैदावार प्राप्त की जा सकती है।
मूली की फसल में लगने वाले कई प्रकार के रोग और इसकी अलग-अलग किस्मों की जलवायु के साथ उत्पादकता का पता लगाने के लिए, 
यह भी देखें : मूली की खेती (Radish cultivation in hindi)
  • लहसुन की खेती

ऊटी 1 और सिंगापुर रेड तथा मद्रासी नाम की अलग-अलग किस्म के साथ उगाई जाने वाली लहसुन की फसल लगभग 12 से 25 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में बोयी जाती है। पोषक तत्वों से भरपूर और अच्छी तरह से सिंचाई की हुई मिट्टी इस फसल की उत्पादकता के लिए सर्वश्रेष्ठ साबित होती है। प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में 500 से 600 किलोग्राम बीज के साथ उगाई जाने वाली यह खेती कई प्रकार के रोगों के खिलाफ स्वतः ही कीटाणुनाशक की तरह बर्ताव कर सकती है। बलुई और दोमट मिट्टी में प्रभावी साबित होने वाली यह फसल भारत में आंध्र प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश के अलावा गुजरात राज्य में उगाई जाती है। वर्तमान में भारतीय किसानों के द्वारा लहसुन की गोदावरी और श्वेता किस्मों को काफी पसंद किया जा रहा है। इस फसल का उत्पादन जुताई और बिना जुताई वाले खेतों में किया जा सकता है। पहाड़ी क्षेत्र वाले इलाकों में सितंबर के महीने को लहसुन की बुवाई के लिए सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, जबकि समतल मैदानों में इसकी बुवाई अक्टूबर और नवंबर महीने में की जाती है।
लहसुन की फसल से जुड़ी हुई अलग-अलग किस्म और जलवायु के साथ उनकी प्रभावी उत्पादकता को जानने के अलावा,
इस फसल में लगने वाले रोगों के निदान के लिए यह भी देखें : लहसुन को कीट रोगों से बचाएं
भारत के किसान भाई इस फसल के बारे में कम ही जानकारी रखते है, परंतु अरुगुला (Arugula) सब्जी से होने वाली उत्पादकता से कम समय में काफी अच्छा मुनाफा कमाया जा सकता है। इसे भारत में गारगीर (Gargeer) के नाम से जाना जाता है।यह एक तरीके से पालक के जैसे ही दिखने वाली सब्जी की फसल होती है जो कि कई प्रकार के विटामिन की कमी को दूर कर सकती है। पिछले कुछ समय से उत्तरी भारत के कुछ राज्यों में इस सब्जी की डिमांड बढ़ने की वजह से कई युवा किसान इसका उत्पादन कर रहे है। सितंबर महीने के दूसरे सप्ताह में बोई जाने वाली यह सब्जी वैसे तो किसी भी प्रकार की मिट्टी में अच्छा उत्पादन दे सकती है, परंतु यदि मिट्टी की ph 7 से अधिक हो तो यह अधिक प्रभावी साबित होती है। पानी के सीमित इस्तेमाल और जैविक खाद की मदद से इस फसल की वृद्धि दर को काफी तेजी से बढ़ाया जा सकता है। इस सब्जी की फसल की छोटी पौध 7 से 10 दिन में अंकुरित होना शुरू हो जाती है। बहुत ही कम खर्चे पर तैयार होने वाली यह फसल 30 दिन में पूरी तरीके से तैयार हो सकती है। दक्षिण भारत के राज्यों में इसकी बुवाई सितंबर महीने के दूसरे सप्ताह में शुरू हो जाती है, जबकि उत्तरी भारत में यह अक्टूबर महीने के पहले सप्ताह में बोयी जाती है। इस फसल के उत्पादन में बहुत ही कम सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है परंतु फिर भी नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम के सीमित इस्तेमाल से उत्पादकता को 50% तक बढ़ाया जा सकता है।


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आशा करते हैं कि Merikheti.com के द्वारा किसान भाइयों को सितंबर महीने में बुवाई कर उत्पादित की जा सकने वाली फसलों के बारे में दी गई यह जानकारी पसंद आई होगी और यदि आप भी किसी कारणवश खरीफ की फसल का उत्पादन नहीं कर पाए है तो खाली पड़ी हुई जमीन में इन सब्जी की फसलों का उत्पादन कर कम समय में अच्छा मुनाफा कमा सकेंगे।